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खुरहा रोग से दुधारू पशुओं में होने वाले नुकसान । Khurha Rog Se Pashuon Ko Hone Wale Nuksaan

खुरहा रोग से दुधारू पशुओं में होने वाले नुकसान । Khurha Rog Se Pashuon Ko Hone Wale Nuksaan, खुरहा या खुरपका-मुंहपका रोग गाय, भैस, भेड़, बकरी, हिरण और अन्य जंगली जानवर जिनके दो विभक्त खुर होने वाले पशुओं में होता है। यह बीमारी दुधारू पशु जैसे – गाय, भैंस, बकरी आदि को अधिक प्रभावित करता है।

Khurha Rog Se Pashuon Ko Hone Wale Nuksaan
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यह पशुओं में बहुत ही तेजी से फैलने वाला सूक्ष्म विषाणु होता है जो कि जानवरों के पुरे झुण्ड को प्रभावित करता है और कभी-कभी तो यह रोग पुरे गाँव के पशुओं को अपनी चपेट में ले लेता है। इस रोग से पशुधन उत्पादन में भारी कमी आती है साथ ही देश से पशु उत्पादों के निर्यात पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस बीमारी से अपने देश में प्रतिवर्ष लगभग 20 हजार करोड़ रूपये की प्रत्यक्ष नुकसान होता है।

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खुरहा रोग के लक्षण

तीव्र ज्वर (103-105 फारेनहाइट) साधारणतः युवा पशु में जानलेवा होता है। परंतु वयस्क पशु में नहीं, लेकिन रोग से प्रभावित पशु अत्यधिक कमजोर हो जाता है। कभी-कभी खुरहा रोग से प्रभावित पशु गर्मी का सहन नहीं कर सकता है और गर्मी के दिनों में हांपने लगता है। पशुओं की अत्यधिक मृत्यु दर प्राय: गलाघोटु रोग होने से होती है(गलाघोटु रोग से बचाने के लिए अपने पशुओं को बरसात से पहले इसका टीका अवश्य लगवाएं)

  • मुँह से अत्यधिक लार का टपकना (रस्सी जैसा)
  • जीभ तथा तलवे पर छालों का उभरना जो बाद में फट कर घाव में बदल जाते हैं।
  • जीभ की सतह का निकल कर बाहर आ जाना एवं थूथनों पर छालों का उभरना।
  • खुरों के बीच में घाव होना जिसकी वजह से पशु का लंगड़ा कर चलना या चलना बंद कर देता है। मुँह में घावों कि वजह से पशु भोजन लेना तथा जुगाली करना बंद कर देता है एवं कमजोर हो जाता है।
  • दूध उत्पादन में लगभग 80 प्रतिशत की कमी, गाभिन पशुओं के गर्भपात एवं बच्चा मरा हुआ पैदा हो सकता है।
  • बछड़ों में अत्याधिक ज्वर आने के पश्चात बिना किसी लक्षण की मृत्यु होना।

रोकथाम के उपाय

इस रोग का उपचार अब तक संभव नहीं हो सका है, इसलिए रोकथाम ही सबसे कारगर नियंत्रण का उपाय है। सभी किसान/ पशुपालक को अब इस रोग के प्रति जागरूकता दिखाने की आवश्यकता है तभी इस रोग का रोकथाम संभव है।

  • पशुपालकों को अपने सभी पशुओं (चार महीने से ऊपर) को टीका/भेद लगवाना चाहिए। प्राथमिक टीकाकरण के चार सप्ताह के बाद पशु को बूस्टर/वर्धक खुराक दिया जाना चाहिए और प्रत्येक 6 महीने में नियमित टीकाकरण करना चाहिए।
  • नये पशुओं को झुंड या गाँव में मिश्रित करने से पूर्व सिरम से उसकी जाँच आवश्यक है। केन्द्रीय प्रयोगशाला, मुक्तेश्वर, उत्तराखंड एवं एआइसीआरपी हैदराबाद, कोलकत्ता, पुणे, रानीपेत, शिमला एवं तिरुवनंतपुरम केन्द्रं पर इसकी जाँच की सुविधा उपलब्ध है। इन नए पशुओं को कम से कम चौदह दिनों तक अलग बाँध कर रखना चाहिए तथा भोजन एवं अन्य प्रबन्धन भी अलग से ही करना चाहिए।
  • पशुओं को पूर्ण आहार देना चाहिए। जिससे खनिज एवं विटामीन की मात्रा पूर्ण रूप से मिलती रहे।

उपचार

मुँह में बोरो ग्लिसेरीन (850मिली ग्लिसेरीन एवं 120 ग्राम बोरेक्स) लगाए। शहद एवं मडूआ या रागी के आटा को मिलाकर लेप बनाएँ एवं मुँह में लगाएँ। की परामर्श पर ज्वरनाशी एवं दर्दनाशक का प्रयोग करे एवं जिस पशु के मुँह, खुर एवं छिमी में घाव हो उसको 3 या 5 दिन तक प्रतिजैविक जैसे कि डाइक्रिस्टीसीन या ऑक्सीिटेटरासाइकलीन का सुई लगाए। खुर के घाव में हिमैक्स या नीम के तेल का प्रयोग करें जिससे की मक्खी नहीं बैठे क्योंकि मक्खी के बैठने से कीड़े होते हैं। कीड़ा लगने पर तारपीन तेल का उपयोग करें। इसके अलावा मड़ूआ या रागी एवं गेहूँ का आटा,चावल के बराबर की मात्रा को पकाकर तथा उसमें गुड़ या शहद,खनिज मिश्रण को मिलाकर पशु का नियमित दें। साथ ही साथ अपने पशुओं को प्रोटीन भी दें।

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किसी एक गांव/क्षेत्र में खुरपका मुँहपका रोग प्रकोप के समय क्या करें, क्या नहीं करें ?

क्या करें,

  • निकटतम सरकारी पशुचिकित्सा अधिकारी को सूचित करें।
  • प्रभावित पशुओं के रोग का पता लगने पर तुरंत उसे अलग करें।
  • दूध निकालने के पहले आदमी को अपना हाथ एवं मुँह साबुन से धोना चाहिए तथा अपना कपड़ा बदलना चाहिए क्योंकि आदमी से बीमारी फैल सकता है।
  • बीमारी को फैलने से बचाने के लिए पूरे प्रभावित क्षेत्र को 4 प्रतिशत सोडियम कोर्बोनेट (NaCC) घोल (400 ग्राम सोडियम कार्बोनेट 10 लीटर पानी में) या 2 प्रतिशत सोडियम हाइड्राक्साइड (NaOH) से दिन में दो बार धोना चाहिए एवं इस प्रक्रिया को दस दिन तक दोहराना चाहिए।
  • स्वस्थ एवं बीमार पशु को अलग-अलग रखना चाहिए।
  • बीमार पशुओं को स्पर्श करने के बाद व्यक्ति को 4 प्रतिशत सोडियम कार्बोनेट घोल के साथ खुद को, जूते एवं चप्पल, कपड़े आदि धोने चाहिए।
  • समाज को यह करना चाहिए कि दूध इकट्ठा करने के लिए इस्तेमाल किये बर्तन एवं दूध के डिब्बे को 4 प्रतिशत सोडियम कोर्बोनेट घोल से सुबह और शाम धोने के बाद ही उन्हें गांव से अंदर या बाहर मेजना चाहिए।
  • संकमित गांव के बाहर 10 फिट चौड़ा बलीचिंग पाउडर का छिड़काव करना चाहिए।पशुचिकित्सक को चाहिए की प्रारंभिक चरण के प्रकोप में बचे पशुओं में, संक्रमित गांव/क्षेत्र के आसपास, रोग के आगे प्रसार को रोकने के लिए वृत्त टीकाकरण (टीकाकरण की शुरूआत स्वस्थ पशुओं में बाहर से अंदर की ओर) करना चाहिए तथा टीकाकरण के दौरान प्रत्येक पशु के लिए अलग-अलग सुई का प्रयोग करें तथा इस दौरान बीमार पशु को नही छुएं।टीकाकरण के 15 से 21 दिनों के बाद ही पशुओं को गांव में लाना चाहिए।
  • इस प्रकोप को शांत होने के बाद इस प्रकिया को एक महीने तक जारी रखा जाना चाहिए।

क्या नहीं करें?

  • सामुहिक चराई के लिए अपने पशुओं को नहीं भेजें. अन्यथा स्वस्थ पशुओं में रोग फैल सकता है।
  • पशुओं को पानी पीने के लिए आम स्रोत जैसेकि तालाब, धाराओं, नदियों से सीधे उपयोग नहीं करना चाहिए, इससे बीमारी फैल सकती है | पीने के पानी में 2 प्रतिशत सोडियम बाइकार्बोनेट घोल मिलाना चाहिए।
  • लोगों को गांव के बाहर आने-जाने के द्वारा रोग फैल सकता है।
  • लोगों को ज्यादा इधर उधर नहीं घूमना चाहिए। वे स्वस्थ पशुओं के साथ संपर्क में नहीं जाएं तथा खेतों एवं स्थानों पर जहाँ पशुओं को रखा जाता है वहाँ जाने से उन्हें बचना चाहिए।
  • प्रभावित क्षेत्र से पशुओं की खरीदी न करें।

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