वर्षा ऋतु में पशुओं को होने वाली प्रमुख बीमारियाँ : Major Disease of Animals in Rainy Seasons
वर्षा ऋतु में पशुओं को होने वाली प्रमुख बीमारियाँ : Major Disease of Animals in Rainy Seasons, आप सभी भली भांति जानते हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश. यह की अर्थव्यवस्था कृषि और पशुपालन तथा पर आधारित है. भारतीय कृषि मौसम आधारित है अर्थात यहाँ के किसान भाई मौसम के अनुसार फसल की बोवाई और पैदावार करते हैं. भारत में प्रमुखतः किसानों द्वारा खरीफ फसल का पैदावार बड़े पैमाने पर किया जाता है. भारत में वर्षा ऋतु के आगमन होते ही चारों तरफ़ हरियाली छा जाती है, चेहरे में मुस्कुराहट और दिल ख़ुशी से झूम उठता है. किसान वर्षा ऋतु का स्वागत बड़े धूमधाम से करते हैं.
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परंतु किसानों के लिये वर्षा ऋतु का आगमन एक ओर कृषि कार्य हेतु खुशियों से भर देता हैं, मगर दूसरी ओर पशुपालक बंधुओं के लिये चिंता का विषय बन जाता है. क्योकि बरसात के मौसम आते ही प्रथम बार वर्षा होने से ग्रीष्म ऋतु का अंत हो जाता है. पहली बार बारिश होते ही तपती भूमि बारिश की बूंदों से अपनी प्यास बुझाती है. वर्षा ऋतु का पानी धरती पर पड़ते ही भूमि में कई प्रकार के चारा, पौधा आदि उगने लगते है. इन उगने वाले चारे को पशु बड़े ही चाव के साथ खाते है, क्योंकि यह चारा अत्यंत कोमल और स्वादिष्ट होता है. इसी चारे और पौधों के साथ जमींन के अन्दर में छिपे हुए जीवाणु, विषाणु, परजीवी आदि बाहर आ जाते है. जो कि पशुओं के चारागाह में चरने पर चारे के माध्यम से पशुओं के मुंह, फेफड़े, आंत आदि तक पहुँचकर संक्रमित कर देते हैं. फलस्वरूप पशुओं में गलघोटू, ब्लैकक्वार्टर (एकटंगिया), खुरहा-चपका, न्यूमोनिया, बबेसिओसिस, थैलेरिओसिस आदि बीमारी लगने की संभावना बनी रहती है. पशुओं को उपर्युक्त बीमारी हो जाने पर पशुपालक को बहुत ही आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ता है.
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वर्षा ऋतु का पशुओं पर प्रभाव
प्रायः भारत के सम्पूर्ण राज्यों में वर्षा ऋतु का आगमन जून महीने में होता है. जिसकी अवधी जून से सितम्बर महीने तक होता है. वर्षा ऋतु के आगमन होते ही पशुओं में अनेक रोगों का संक्रमण फैलने लगता है. वर्षा ऋतु में ही परजीवियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि होने लगती है. जिसके द्वारा पशुओं को अन्तः परजीवी एवं बाह्य परजीवी रोग हो जाता है. मौसमी बीमारी की वजह से दुधारू पशु का स्वास्थ्य ख़राब हो जाता है, जिससे दुधारू पशुओं में दुग्ध उत्पादन क्षमता घट जाति है. जिसके कारण पशुपालक को दूध उत्पादन क्षमता में कमी होने से अधिक आर्थिक हानि होती है. साधारणतः भारत में वर्षा ऋतु का समय 15 जून से 15 सितम्बर तक होता है. इस कारण से वातावरण में अधिक आर्द्रता होने के कारण वातावरण के तापमान में काफी उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है. जिसका कुप्रभाव सभी प्रकार के जानवरों में देखा जा सकता है. वातावारण में आर्द्रता अधिक होने के कारण पशुओं के पाचन क्रिया के साथ-साथ उनके आतंरिक रोग रोधक क्षमता पर भी प्रभाव पड़ता है, जिसके परिणाम स्वरुप पशु अनेक रोंगों से ग्रसित होने लगता है. इसी मौसम के दौरान परजीवियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि होने से पशुओं में प्रोतोजोवल एवं पैरासिटिक रोग होने की सम्भावना बनी रहती है.
बरसात के मौसम में पशुओं का देखभाल कैसे करें?
पशुपालकों को वर्षा ऋतु लगने से पहले और वर्षा ऋतु के समय अपने पशुओं के बेहतर प्रबंधन और देखभाल करने की आवश्यकता होती है. क्योंकि वर्षा ऋतु में जीवाणुओं, परजीवियों, प्रोटोजोवा आदि की सख्या में अत्यधिक वृद्धि होने से पशुओं में रोग के फैलने की सम्भावना बनी रहती है. बरसात के मौसम में जीवाणुजन्य, प्रोटोजोवा एवं पैरासिटिक बीमारी की रोकथाम के लिये बरसात लगने के पूर्व में टीकाकरण करवाकर संक्रामक रोगों के फैलने से पशुओं को बचाया जा सकता है. बरसात के समय उगने वाले चारा, जगह जगह गड्ढों में भरे दूषित पानी पानी से मिट्टी और पानी दोनों संक्रमित हो जाते हैं. पशुओं द्वारा इन दूषित पानी को पीने या संपर्क में आने से स्वस्थ पशुओं के बीमार होने की सम्भावना बनी रहती है. इसलिए रोगी पशु को स्वस्थ पशु से अलग रखना चाहिए. अन्यथा बरसात के मौसम में होने वाले प्रमुख संक्रामक रोग जैसे – गलघोटू, लंगड़ा बुखार, खुरपका , मुहपका, न्युमोनिया, बबेसियोसिस, थैलेरियोसिस आदि. पशुओं में होने वाले संक्रामक रोग बरसात के दिनों में पशुओं को अधिक प्रभावित करती हैं. जिससे कई बार रोग से प्रभावित पशुओं की जान भी चली जाती हैं.
बरसात के मौसम में पशुशाला की विशेष ध्यान, साफ-सफाई रखने की आवश्यकता होती है. बरसात के मौसम में पशुशाला में पानी नहीं भरना चाहिए तथा बाड़े की नालियां साफ-सुथरी रहनी चाहिए. बाड़े की सतह सुखी तथा फिसलन वाली नहीं होनी चाहिए. लगातार गिले रहने की वजह से पशुओं के पैर में संक्रमण की सम्भावना बनी रहती है. इसलिए सप्ताह में एक या दो बार हल्के लाल दवाई के घोल से धोते रहना चाहिए. ज्यादा नमीं के कारण पशुओं के लिये संगृहीत आहार जैसे भूंसा, पैरा, हरा चारा, हे आदि में फफूंद लगने की सम्भावना बनी रहती है. फफूंदयुक्त खाना पशुओं को नहीं देना चाहिए ये पशुओं के स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो सकता है. पशुओं को कृमि की दवाई नियमित पिलाने से पशु की उत्पादकता में कमी, रोग का संक्रमण आदि से बचाया जा सकता है.
पशुओं के बाड़े या पशुशाला की छत से पानी नहीं टपकना चाहिए तथा बाड़े के आसपास पानी का जमाव या ठहराव नहीं होना चाहिए. क्योंकि गंदे पानी पर मच्छर व मक्खी पनपते है जो कि बिमारियों के प्रवाहक होते हैं. मक्खी वा मच्छर के रोकथाम के लिये इन गड्ढों के पानी में कैरोसिन (मिट्टी का तेल) डाला जा सकता है. पशुओं को समय-समय पर आंतरिक व बाह्य परजीवियों से चिकित्सीय परामर्श द्वारा मुक्त रखना चाहिए. पशुओ के बीमार पड़ने पर तुरंत पशु चिकित्सक से सलाह लेना चाहिए. बरसात के मौसम में होने वाली बीमारी जैसे – गलघोटू, एकटंगिया (ब्लैक क्वार्टर), खुरपका-मुहपका, न्युमोनिया, सर्दी-खांसी, बबेसियोसिस, थैलेरिओसिस आदि की विस्तृत जानकारी और प्राथमिक उपचार के लिये आप मेरे वेबसाइट pashudhankhabar.com पर विजिट करें.
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प्रिय पशुप्रेमी और पशुपालक बंधुओं पशुओं की उपर्युक्त बीमारी, बचाव एवं उपचार प्राथमिक और न्यूनतम है. संक्रामक बिमारियों के उपचार के लिये कृपया पेशेवर चिकित्सक अथवा नजदीकी पशुचिकित्सालय में जाकर, पशुचिकित्सक से सम्पर्क करें. ऐसे ही पशुपालन, पशुपोषण और प्रबन्धन की जानकारी के लिये आप अपने मोबाईल फोन पर गूगल सर्च बॉक्स में जाकर सीधे मेरे वेबसाइट एड्रेस pashudhankhabar.com का नाम टाइप करके पशुधन से जुड़ी जानकारी एकत्र कर सकते है.
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