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पशुओं को आरोग्य रखने के नियम : Rules for Keeping Animals Healthy

पशुओं को आरोग्य रखने के नियम : Rules for Keeping Animals Healthy, पशुधन के कार्य क्षमता को बनाये रखने और उत्पादन क्षमता को बनाये रखने के लिये पशु को स्वस्थ रखना बहुत ही आवश्यक है. पशुधन का किसी भी प्रकार के रोग या बीमारी से ग्रसित होने पर पशु की कार्य और उत्पादन क्षमता पर सीधा प्रभाव पड़ता है. अतः पशुपालक अपने मवेशियों या पशुधन के लिये साफ़-सुथरा, हवादार घर, संतुलित आहार, उचित पोषण और प्रबंधन जैसे पहलुओं पर ध्यान देकर पशु के रोगग्रस्त होने या संक्रामक बीमारी के संक्रमण को कुछ हद तक रोका या टाला जा सकता है.

Rules for Keeping Animals Healthy
Rules for Keeping Animals Healthy

मवेशियों में रोगों का प्रकोप कमजोर जानवरों को ज्यादा प्रभावित करता है, क्योंकि कमजोर पशुओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने के कारण जल्दी बीमारी के चपेट में आ जाते हैं. ऐसे कमजोर पशुओं को खान-पान के नियमों का पालन करके, इनकी खाना-खुराक की पौष्टिकता बढ़ाकर रोगों से लड़ने की क्षमता अर्थात रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाया जा सकता है. पशुशाला की अच्छी तरह से नियमित साफ-सफ़ाई, जीवाणुनाशक, विषाणुनाशक तथा परजीवी मारने वाली दवा का छिड़काव करके, पशुओं में फैलने वाली संक्रामक बिमारियों की रोकथाम किया जा सकता है. यहाँ पर पशुओं को आरोग्य रखने का आशय, पशुधन के उन नियमों और उपायों से है जिसे अपना कर पशुधन को स्वस्थ रखा जा सकता है. वर्तमान में पशुओं की मृत्यु दर लगभग 10% है. प्रायः इन पशुओं की मृत्यु असंतुलित आहार, अल्पाहार, उपचार नहीं कराना, परजीवी, दवा और चिकित्सा के अभाव के कारण होती है.

पशुधन को आरोग्य रखने के नियम

1 . सूर्य चिकित्सा के द्वारा – सूर्य चिकित्सा के अविष्कारक पलिंझन होन के अनुसार सूर्य की किरणों में जीवाणुओं और विषाणुओं को नाश या नष्ट करने की अपूर्व क्षमता होती है, अतः पशुओं को प्रतिदिन सूर्य का प्रकाश दिखाना चाहिए.

2. पशुओं को नियमित व्यायाम के लिये पशु बाड़े में कुछ घंटों के लिये खुला छोड़ देना चाहिए. इससे पशुओं को व्यायाम मिलने पर शरीर के सभी अंगों में रक्त का संचार होता है.

3. मवेशियों में रोगी, कमजोर, अपाहिज और गाभिन पशुओं को धीरे-धीरे टहलाना चाहिए तथा वयस्क सांड और विश्रामावस्था में कार्यशील नर पशुओं धीरे-धीरे तेज दौड़ाकर व्यायाम करना चाहिए.

4. पशुओं को स्नान वा तैराने से पशु के शरीर का धुल, पसीना, परजीवी, रक्त एवं चर्म विकार नष्ट हो जाते है तथा तवचा के छिद्र खुल जाते है.

5. रोगी, वृद्ध, अपाहिज और गाभिन पशुओं को नहीं तैराना चाहिए. उन्हें पशु बाड़े में ही साफ़ और स्वच्छ पानी से धोना चाहिए.

6. पशुओं को तेज धुप, वर्षा, आंधी व सर्दी आदि से बचाने की उचित व्यवस्था करना चाहिए.

7. पशुओं में मौशम के प्रभाव के कारण लू, सर्दी, कप, निमोनिया आदि रोग हो जाते हैं अतः पशुशालाओं में मौषम से बचाव की उचित उपाय करना चाहिए.

8. पशु आहार में किसी भी पोषक तत्व की कमी होने पर, पशुओं में पोषक आहार की कमी से होने वाले रोग, रिकेट्स, आस्टियोमलेशिया, रिपीट ब्रीडिंग, गर्भपात तथा प्रजनन तंत्र से संबंधित बीमारियाँ उत्पन्न हो जाति है. इसलिए पशुपालक पशुओं को प्रतिदिन आहार में पोषक तत्व से जुड़ी खाद्य पदार्थ, खनिज मिश्रण, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन, प्रोटीन आदि को नियमित रूप से देते रहें.

9. पशुओं को कम उर्जा प्रदान करने वाली राशन या आहार देने से पशु कमजोर तथा अधिक उर्जा देने वाले आहार से पशुओं में मोटापा तथा प्रजनन से संबंधित विकार उत्पन्न हो जाते हैं.

10. मनोवैज्ञानिक कारणों से पशुओं में असामान्य ऋतुकाल, दूध का चढ़ाना, असामान्य प्रभाव तथा अधैर्य आदि की समस्या उत्पन्न होती है.

11. संक्रामक बीमारी से पीड़ित पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए. संक्रामक रोग फैलने पर पशुओं का खान-पान की व्यवस्था कोटना या नांद को अलग रखना चाहिए.

12. एक अस्वस्थ या रोगी पशु को दवाई देने वाली पात्र, निडिल, बांस, बोतल, सीरिंज या अन्य किसी वस्तु उपयोग स्वस्थ पशु के लिये नहीं करें.

पशुओं को दवा देने या पिलाने की विधि

1 . पशुओ को दवा पिलाते समय ध्यान रखना चाहिए की दवा को बांस या बोतल के माध्यम से गुनगुने पानी में अच्छी तरह से घोल बनाकर पिलावें.

2. गोली (Bolus), कैप्सूल, चटनी तथा लोई के रूप में दवा को सावधानी से खिलाना चाहिए.

3. पशु के खाने में असमर्थ होने की स्थिति में एनीमा द्वारा खाना खिलाना चाहिए.

4. पशुओं में साँस से संबंधित बिमारियों के लिए दवा का वफारा दिया जाना चाहिए.

5. पुल्टिस – अलसी की पुल्टिस का उपयोग पशुओं के फोड़ा पकने या सेँकने के लिये किया जाता है.

6. सुई (Injection)द्वारा दिए जाने वाली दवाई की विधि – यह तीन प्रकार से दी जाति है.

. त्वचा के अन्दर/अन्तः त्वचा ( Subcutaneous)

. मांसपेशी के अन्दर (Intra Muscular)

. अन्तः शिरा ( Intravenous)

पशुओं के उपचार में प्रयोग की जाने वाली सामान्य औषधियाँ

1 . मैग्नीशियम सल्फेट (MgSO4) – यह रंगहीन, गंधहीन, रवेदार पदार्थ होता है. इसे मैग्सल्फ़ के नाम से भी जाना जाता है. इसका जुलाब के रूप में भी प्रयोग किया जाता है. इसकी मात्रा प्रति बड़े पशु 250-300 ग्राम देना चाहिए.

2. अंडी का तेल – इसका तेल बहुत गाढ़ा होता है. इस तेल का उपयोग जुलाब के रूप में किया जाता है. इसे जुलाब की स्थिति में बड़े पशुओं को 500-600 ग्राम वा छोटे बछड़ों या बच्चो को 50-60 ग्राम दिया जाना चाहिए.

3. फिनाइल – यह कीटाणु नाशक दवाई है, इसका उपयोग खुरपका-मुंहपका रोग में खुर धोने के लिये तथा फर्श या जमींन की सफ़ाई के लिये किया जाता है. खुरहा-चपका रोग में इसका 5% घोल का उपयोग खुर को धोने के लिये तथा 10% घोल का उपयोग मुंह के अन्दर के छालों को धोने के लिये किया जाता है.

4. कार्बोलिक पाउडर – यह भी कीटाणुनाशक पाउडर है. इसका घाव को धोने में 1% घोल तथा फर्श की सफ़ाई आदि के लिये 5% घोल का प्रयोग किया जाता है.

5. पोटेशियम परमैगनेट – यह भी कीटाणुनाशक एंटिसेप्टिक औषधि है जो कि लाल रंग की होती है. इसके 5% घोल का प्रयोग साधारण सफाई के लिये और 0.1%-1.0% घोल का उपयोग घाव धोने के लिये किया जाता है. कुत्ते काटने, सांप काटने आदि में इसके रवों का प्रयोग जलाने में किया जाता है. इसे लाल पाउडर के नाम से भी जाना जाता है.

6. लाइजोल या लुगाल्स – लुगाल्स के 2% घोला का प्रयोग बच्चेदानी की सफाई के लिए किया जाता है तथा 1% घोल का प्रयोग अन्य कार्यों में किया जाता है.

7. कपूर – कपूर का प्रयोग 6-8 गुना सरसों या जैतून के तेल में मिलाकर चोट, मोच, दर्द में मालिश करने का काम में प्रयोग किया जाता है. यह एक उत्तेजक पदार्थ होता है, इसका 2-4 ड्राप खांसी और जुकाम में भी प्रयोग किया जाता है.

8. एल्कोहल (शराब) – यह भी उत्तेजक द्रव्य होता है. यह पशुओं में कमजोरी की अवस्था में या पाचन क्रिया मंद होने पर 100-150 मिली. प्रति पशु पिलाया जाता है.

9. नीला थोथा या तूतिया – इसे कापर सल्फेट या नीला थोथा भी कहा जाता है. इसका उपयोग पेट के कीड़े मारने, त्वचा के परजीवियों को मरने में किया जाता है. पशुओं में खुरपका के छालों पर 1% घोल का उपयोग दिन में 5-6 बार लगाया जाना चाहिए.

10. फिटकरी – यह द्रवों को जमाती है, तंतुओं को संकुचित करती है तथा खून को बहने से रोकती है. इसका 2%-5% घोल का उपयोग में लाया जाता है.

11. टिन्चर आयोडीन – टिन्चर आयोडीन, आयोडीन, पोटैशियम डाई-क्लोराइड, पानी और एल्कोहल से बना होता है. इसलिए यह एंटिसेप्टिक, डिसइन्फेक्टेड, पैरासाईटी साईड, एक्सपेक्टोरेन्ट होता है.

12. तारपीन तेल – इस तेल का एक भाग, सरसों तेल का 4 भाग, अमोनियम फोर्ट एक भाग और पानी का आधा भाग में पेंटकर चोट, मोच और गठिया पर मालिश किया जाता है. तारपीन तेल का उपयोग घाव में कीड़े मारने के लिये भी किया जाता है.

13. सरसों का तेल – पशुओं के शरीर में खून का दौरा कम होने पर इस तेल से मालिश किया जाता है. पशुओं में कुपच होने पर छोटे बछड़ों को 50 ग्राम और बड़े जानवरों को 200-300 ग्राम दिया जाता है.

14. कत्था या खड़िया – इसका उपयोग पशुओं के पेचिस या दस्त में किया जाता है. पशुओं को 30 ग्राम खड़िया, 15 ग्राम कत्था व 200 ग्राम बेलगूदा मिलाकर देना चाहिए.

15. कलमी शोरा – इसे पानी में घोलकर पिलाने से खून का बहना बंद करता है. इसका प्रयोग में बुखार में भी किया जाता है. इसके अतिरिक्त सौंफ पेन्ट की ख़राबी में 30 से 60 ग्राम, हींग अफरा व मरोड़ में 2-4 ग्राम, काला नमक हाजमा ठीक करने के लिये 2-4 ग्राम, सोहागा मुंह का जख्म ठीक करने के लिये (3 भाग सुहागा, 22 भाग ग्लिसरीन), सोंठ ऐंठन करता है तथा गर्मी पैदा करता है इसे 4-8 ग्राम का खुराक देना होता है, भांग का 1-2 ग्राम दर्द कम करता है, ईसबगोल दस्त में 30-60 ग्राम, कुचला 1-2 ग्राम बलवर्धक तथा हाजमा ठीक करता है.

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