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बरसात के मौसम में पशुओं का बेहतर प्रबंधन कैसे करें । Barsat Ke Season Me Pashudhan Ka Behtar Prabandhan

बरसात के मौसम में पशुओं का बेहतर प्रबंधन कैसे करें । Barsat Ke Season Me Pashudhan Ka Behtar Prabandhan, भारत में साधारणतः वर्षा ऋतु का समय जून महीने से लेकर सितम्बर तक का होता है। इस समय पशु अनेक रोगों से ग्रसित हो जाता है। इसी मौसम के दौरान परजीवियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि देखने को भी मिलती है जिनके द्वारा पशुओं को आंतरिक ओर बाह्य परजीवियों के रोग हो जाते हैं।

Barsat Ke Season Me Pashudhan Ka Behtar Prabandhan
Barsat Ke Season Me Pashudhan Ka Behtar Prabandhan

मौसमी बीमारियों की वजह से दुधारू पशुओं का स्वास्थ्य बिगड़ जाता है, इससे उनके दूध उत्पादन में कमी आ जाती है और उसके कारण दूध उत्पादक का काफी आर्थिक नुकसान हो जाता है। साधारणतया भारत में वर्षा ऋतु का समय 15 जून से 15 सितम्बर तक का होता है। इस दौरान वातावरण में अधिक आद्रता होने की वजह से वातावरण के तापमान में अधिक उतार चढाव देखने को मिलता है जिसका कुप्रभाव प्रत्येक श्रेणी के पशुओं पर भी पड़ता हैं।

पशुओं में संक्रामक रोग की सम्भावनाएँ

वातावरण में आद्रता की अधिकता होने के कारण पशु की पाचन प्रक्रिया के साथ-साथ उसकी आन्तरिक रोगरोधक शक्ति पर भी असर पड़ता है परिणामस्वरूप पशु अनेक रोगों से ग्रसित हो जाता हैं। इसी मौसम के दौरान परजीवियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि देखने को भी मिलती है जिनके द्वारा पशुओं को प्रोटोजोवल एवम् पैरासिटिक रोग हो जाते हैं।

इन रोगों के प्रकोप से बचाने पशुओं का बारिश के मौसम पूर्व अधिकतर पशुपालक अपने पशुओं का टीकाकरण करके संक्रामक रोगों से तो बचाव कर लेता है, लेकिन परजीवियों के बारे में उसको पता नहीं होता है कि ये पशुओं में कितनी हानि पहुंचाते हैं। बरसात के मौसम में जगह–जगह पानी भरने से पशुओं द्वारा मिट्टी और पानी भी संक्रमित हो जाते हैं। जिसके संपर्क में आने से स्वस्थ पशुओं के संक्रमित होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

इस मौसम में पशुओं में होने वाले प्रमुख संक्रामक रोग जैसे गलघोटू, लंगड़ा बुखार, खुरपका, मुंहपका, न्यूमोनिया आदि हैं। परजीवी रोगों में बबेसिओसिस, थैलेरिओसिस व परजीवी जूं, चिचड़ आदि प्रमुख हैं। इसलिए रोग से संक्रमित पशु को स्वस्थ पशु से अलग रखें.

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वर्षा ऋतु से पहले संक्रामक रोगों का बचाव कैसे करें?

1 . पशुओं में होने वाले संक्रामक रोग बरसात के दिनों में पशुओं को प्रभावित करते हैं तथा कई बार पशुओं की जान भी चली जाती है। बारिश के मौसम में पशुशाला का विशेष ध्यान रखें, जिसको नियमित रूप से साफ करें। पशुओं को कृमिनाशक दवाई को नियमित पिलाने से पशु उत्पादकता को प्रभावित करने वाले एक प्रमुख कारण से बचा जा सकता है।

2. बरसात के मौसम में बारिश के कारण व उच्च तापमान के कारण, वातावरण में आद्रता बढ़ जाती है। आद्रता के कारण पशु अपने आप में तनाव महसूस करते हैं। बरसात के मौसम में पशुओं में गलघोंटू व मुँह-खुर नामक बीमारी हो सकती है जिसके कारण पशुओं की अचानक मृत्यु हो जाती है। इसलिए अपने पशुओं को वर्षा ऋतु के पूर्व इन बीमारियों का टीकाकरण अवष्य करवाना चाहिए। बरसात के मौसम में शेड में पानी नहीं भरना चाहिए तथा बाड़े की नालियाँ साफ सुथरी रहनी चाहिए। बाड़े की सतह सुखी व फिसलन वाली नहीं होनी चाहिए।

3. लगातार गीले होने के कारण पशुओं के खुरों में संक्रमण होने की संभावना अधिक रहती है, इसलिए सप्ताह में एक या दो बार हल्के लाल दवाई के घोल से पशुओं के खुरों को साफ करना चाहिए। ज्यादा नमी के कारण पशु आहार में फफूँद लगने की संभावना बढ़ जाती है तथा ऐसा आहार खाने से पशु बीमार हो सकते हैं।

4. पशुओं के बाड़े की छत से पानी नहीं टपकना चाहिए तथा बाड़े के आसपास पानी का ठहराव नहीं होना चाहिए। गंदे पानी व स्थानों पर मच्छर व मक्खी पनपते हैं जो की बीमारियों के प्रवाहक है। इनके रोकथाम के लिए केरोसिन का तेल, पानी वाले गड्ढों में डाला जा सकता है। पशुओं को समय-समय पर आंतरिक व बाह्य परजीवियों से चिकित्सीय परामर्श द्वारा मुक्त रखना चाहिए। पशु के बीमार होने पर तुरंत पशु चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए।

बरसात के मौसम में दुधारू पशुओं का पोषण एवं प्रबंधन

पशु पोषण प्रबंधन – पशुपालक भाइयों जैसा कि देखा गया है कि जैसे ही बरसात का मौसम चालू होता है और हमारा पशु भरपेट हरा चारा खाते हैं तो उन्हे दस्त लग जाते हैं और इस कारण उनका दूध उत्पादन प्रभावित होता है। दस्त लगने का मुख्य कारण आहार में अचानक परिवर्तन है चूंकि गर्मियों के मौसम मे समान्यत: पशु को सूखा चारा मिलता है और अचानक भरपेट हरा चारा मिलने से उसके पेट में सूक्ष्मजीवों द्वारा होने वाली किण्वन कि क्रिया प्रभावित होती है और हमारे पशु को अपच होकर दस्त लग जाते हैं। इस समस्या से बचने के लिए हमें पशुओं को एकदम से हरा चारा भरपेट नहीं देना है उन्हे हरे के साथ सूखा चारा जरूर दें, और फिर धीरे-धीरे हरे को बढ़ाते जाएं।

ध्यान रहे सूखे चारे में गीलापन या फफूंद न हो, अन्यथा पशुओं को अफ्लाटोक्सिकोसिस, बदहजमी, दस्त जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं। हरा चारा साफ होना चाहिए, उसमे कीचड़ न लगा हो। पशुओं को साफ़ सुथरा पानी पिलायें। पानी की गुणवत्ता का पशुओं के स्वास्थ्य पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। पानी में अधिक लवण व विषाक्त यौगिकों की मात्रा का पशुओं की वृद्धि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार के पानी के उपभोग का शुष्क पदार्थ के सेवन पर प्रभाव पड़ता है। जिस दिन मौसम साफ़ हो तब टंकी का सारा पानी निकाल कर उसकी अंदर तथा बाहर से चूने से लिपाई कर दें और सूखने दे, तत्पश्चात उसमे साफ़ ताजा पानी भर दें।

पशु को बरसात में सुपाच्य संतुलित आहार दें जिसमे 60 प्रतिशत गीला/हरा चारा और 40 प्रतिशत सूखा चारा होना चाहिए। गाय को एक लीटर दूध उत्पादन हेतु 300 ग्राम तथा भैस को हर एक लीटर दूध उत्पादन हेतु 400 ग्राम दाने का मिश्रण देना चाहिए। साथ में रोज 30-40 ग्राम सादा नमक और 25-35 ग्राम खनिज मिश्रण खिलाना चाहिए। बरसात के मौसम में हरी घास का उत्पादन अधिक होता है परंतु इस घास मे पानी अधिक और कम पोषक तत्व ओर रेशे होते है जो पशु के पाचन के लिए उचित नहीं होता और इसलिए भी इस मौसम मे पशु को दस्त लग जाते हैं।

इस मौसम में आहार के भंडारण पर भी ध्यान देना चाहिए अन्यथा दाना और चारा गीला होने से उसमे सडऩ लग सकती है जो हमारे पशु को बीमार कर देगी। पशु को हरा चारा आच्छी तरह झाड़ कर खिलाएं क्योंकि बरसात के समय घोंघों का प्रकोप अधिक होता है एवं यह चारे के निचलें तने एवं पत्तियों पर चिपके होते हैं।

पशुओं का आवास प्रबंधन

पशु के दूध उत्पादन का आवास से गहरा सम्बन्ध होता है, क्योंकि अच्छा आवास का मतलब है सूखा, आरामदेह, हवादार आवास। जब पशु को आराम मिलता है तो दूध उत्पादन सामान्य और अच्छा मिलता है और अगर पशु तनाव में है तो दूध उत्पादन कम हो जाएगा। इसलिए बरसात के समय खुले में बंधे हुये पशुओं से दूध उत्पादन कम मिलता है। अत: बरसात से पहले पशुआवास ठीक करवा लेना अति आवश्यक है। अगर आवास की खिडकियां दरवाजे टूटे हों तो उनकी मरम्मत करवा लें। अगर फर्श उखड़ा है तो वहा चूना या सीमेंट लगाकर जगह समतल बना दें ताकि वहां बरसात का पानी इकठ्ठा न हो।

अगर दीवार में दरारें है तो वहा चूना या सीमेंट या पुट्टी लगाकर जगह समतल बना दें और सफेदी कर दें ताकि उन दरारों में कीड़े मकौड़े शरण न लें। क्योंकि कीड़े खाने के लिए बाड़े में मेंढक आ सकते हैं और उन्हें खाने के लिए सांप आ सकते हैं। सभी पशुओं को बाड़े से थोड़ी देर के लिए बाहर निकाल कर एक ड्रम में कुछ सूखी घास, कुछ कड़वे नीम की पत्तियां, तुलसी और तेजपान की पत्तियां आदि डालकर जला दें उससे निकलता धुँआ बाड़े में भरने दें, थोड़ी देर बाद उसे वहाँ से हटा दें। इस धुए से बाड़े में मौजूद सब कीड़े मकौड़े, मक्खी मच्छर भाग जायेंगे। बाड़े की छत टूटी है तो उसकी मरम्मत करवा लें ताकि वहा से बरसात का पानी अंदर न आये।

पशुओं को गीलापन पसंद नहीं होता इसलिए वे बरसात में पक्की सड़क या सूखी जगह इकठ्ठा हो जाते है। कीचड़ में रहने से उनके खुरों में विशेष कर संकर पशुओं के खुरों में छाले हो जाते है जो बाद में फट जाते है जिन्हें अल्सर कहते है। अगर एक बार अल्सर हो जाये तो लम्बे समय तक पशुओं का इलाज करना पड़ता है और उसमे काफी समय और खर्च होता है। पशुओं को जो शारीरिक तकलीफ होती है सो अलग।

आवास के इर्द गिर्द बरसात का पानी इकठ्ठा न हो और उसकी तुरंत निकासी हो ऐसी व्यवस्था करें। अगर कहीं पानी इकठ्ठा हो तो उसमे मिट्टी का तेल (रोकेल) या फिनायल डाल दें ताकि उसमे मच्छर पैदा न हो। ध्यान रखे की,आवास के इर्दगिर्द कीचड़ न हो और वहां सफाई रखें।

स्वास्थ्य प्रबंधन

टीकाकरण – बरसात के मौसम में सबसे जरुरी बात है दुधारू पशुओं का स्वास्थ्य प्रबंधन करना और इसमें सबसे पहला उपाय है बचाव के तौर पर पशुओं का टीकाकरण करना। क्योंकि अगर उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो उनके चारा ग्रहण में कमी हो जाती है और उससे उनके दूध उत्पादन में कमी हो जाती है। अत: उनको बरसात से पहले ही पशुओं के डॉक्टर द्वारा गलघोंटू, लंगड़ा बुखार, देवी रोग, खुरपका मुंहपका आदि रोगों के विरुद्ध टीके लगवा लेने चाहिए।

कृमिनाशक – बरसात में उनके पेट में कृमि हो जाते है अत: उनके नियंत्रण हेतु उन्हें अल्बेंडेजोल या पेनाक्युर नामक दवा डॉक्टर की सलाह लेकर उचित मात्रा मे खिलाए। उनके शरीर पर जुए, लीचड, पिस्सू ,गोमख्खी आदि बाह्य परजीवी हो जाते है अत: उनके नियंत्रण हेतु उनके शरीर पर 2 मिलीलीटर डेल्टा मेथ्रिन (बुटोक्स ) नामक दवा प्रति लीटर पानी में मिला कर उस घोल का छिड़काव करें।

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दूध दोहन का प्रबंधन

थनैला रोग – बरसात के मौसम में थनों की बीमारी भी अधिक प्रचलित होती है पशु थनेला रोग कि चपेट में आ जाते हैं। थनेला रोग फैलने का प्रमुख कारण साफ़ सफाई का अच्छी तरह से ना होना होता है। क्योंकि फर्श गीला और सूक्ष्म जीवाणुओ से भरा होता है। दूध दोहन के तुरंत बाद थन के छेद कुछ देर के लिए खुले रहते है और इसी समय अगर दुधारू पशु नीचे बैठ गया तो उसे थनैला रोग होने की संभावना बढ़ जाती है, अत: इसे टालने के लिए बचाव के तौर पर साफ-सफाई रखें।

जहाँ दूध दोहन करते है वहां का फर्श साफ़ रखे। दूध दोहन के तुरंत बाद दुधारू पशु को नीचे बैठने न दे। दूध दोहन से पहले और बाद में साफ़ गर्म पानी में जंतुनाशक दवा की कुछ बुँदे डालकर उसमे एक साफ़ कपड़ा भिगोकर उससे थन तथा अयन पोछ कर साफ़ करें। इससे थनैला रोग होने की संभावना काफी कम हो जाती है।

पशुओं का सामान्य रख-रखाव

न्युमोनिया – बरसात के मौसम में जब बहुत ज्यादा लगातार बरसात हो उस दिन पशुओं को तेज बरसात से बचाएं और बाड़े में ही चारा खिलायें। उन्हें बरसात में ज्यादा देर तक भीगने न दे अन्यथा संकर पशुओ में जुकाम ,न्युमोनिया हो सकता है। बरसात के मौसम में कोशिश करें किपशु गंदे पानी में न नहाये क्योंकि इससे उसके कानों में सूक्ष्म जीवाणुओं का प्रकोप होकर कान से संबन्धित रोग हो सकता है, उसके जनन अंग में भी सूक्ष्म जीवाणुओं का प्रकोप होकर गर्भाशय दाह हो सकता है और इसी के साथ थनों के छेद में सूक्ष्म जीवाणुओं का प्रकोप होकर स्तनदाह अर्थात् थनैला रोग हो सकता है।

बरसात के आने से पहले दुधारू पशु के थन अयन तथा पूंछ के इर्द गिर्द के बाल कैची से काटकर साफ़ कर दें ताकि वहां पर कीचड़ न लगा रहे। दुधारू पशु को दूध दोहन से पहले साफ़ ठंडे पानी से नहला दें इससे उसे ताजगी महसूस होगी। उसके शरीर में खून का संचार बढिय़ा तरह से होगा और दूध उत्पादन में धीरे-धीरे बढ़ोतरी होगी।

बाड़े के द्वार पर खुर धोने की सतही टंकी बनाये जिसमे चूना तथा जंतुनाशक दवा फिनाइल आदि डाल दें ताकि पशुओं के खुरों में संक्रमण, खुर सडऩा, खुर गलन आदि बीमारियां न जकड़ ले। उनके चारे की नांद की सफाई करें। साफ सफाई एक बचाव का तरीका है। पशुशाला की खिड़कियाँ खुली रखनी चाहिए तथा बिजली के पंखों का प्रयोग करना चाहिए।

जिससे पशुओं को उमस एवं गर्मी से राहत मिल सकें। 15 दिन के अंतराल पर परिजीविओं की रोकथाम हेतु कीटनाशक दवाइयों को पशु चिकित्सक की सलाह अनुसार प्रयोग करें। यदि इस मौसम में अन्य कोई विकार पशुधन में उत्पन्न होते हंै तो तुरंत पशु चिकित्सक की सलाह लेकर उपचार करें।

पशुधन उत्पादन और प्रबंधन शास्त्र में पशुओं को रोगों से बचाव उपाय को उपचार से श्रेष्ठ मना गया है, अत: इसका ध्यान रखें तो आधी परेशानियां दूर हो जाएंगी। बीमारियाँ कम से कम आएगी और पैसे की बचत होगी। इससे खर्च कम होगा और दूध व्यवसाय में मुनाफा बढ़ेगा।

बरसात के मौसम में होने वाली कुछ सामान्य बीमारियाँ

1 . खुर एवं  मुख संबंधी बीमारियां-Foot and mouth disease

बरसात के मौसम में इस तरह की बीमारियां पशुओं  में आम पायी जाती है. इसमें पैर और मुख की बीमारी (एफएमडी) मवेशी,  गाय, भैंस, भेंड़, बकरी, सूअर आदि पालतू पशुओं एवं हिरन आदि जंगली पशुओं को होती  है. यह बीमारी भारत के कई हिस्सों में वास करने वाले पशुओं को मुख्यतः  होती है. यह संक्रामक एवं घातक विषाणुजनित रोग है.

लक्षण – Symptoms in this disease 

इस बीमारी में पशुओं में जीभ, नाक और होठों पर, मुंह में, टीट्स पर और पैर की उंगलियों के बीच छाले जैसे घाव पड़ जाते हैं, जो बाद में फट जाते हैं, जिससे वह  दर्दनाक अल्सर  की बीमारी से ग्रसित हो जाते है. फफोले से चिपचिपे, झागदार लार का भारी प्रवाह होता है जो मुंह से लटकता है.इस बीमारी से ग्रसित पशु  अपने पैर की कोमलता के चलते एक पैर से दूसरे पैर पर झूलने की स्थिति में आ जाते है, लंगड़ाकर चलने लगते है. उन्हें तेज बुखार आ जाता है, खाना बंद कर देते हैं, और  दूध कम देते हैं.

कैसे फैलती है यह बीमारी -How this disease spread

यह बीमारी जानवरों के एक जगह से दूसरे जगह जाने पर भी फैल जाती है.इस बीमारी से, बीमार पशु से, स्वस्थ्य पशु संक्रमित हो जाता है,और यह ज्यादातर घूमने वाले पशुओं  में फैलती है. जैसे-कुत्ते एवं  खेतों में घूमने वाले जानवर. 

कैसे नियंत्रित करें? – How to control?

  • इस बीमारी को रोकने के लिए प्रभावित जानवरों को दूसरे जानवरों के संपर्क में नहीं आने देना चाहिए.
  • पशुओं की खरीद बीमारी से प्रभाबित क्षेत्रों से नहीं होनी चाहिए.
  • जब भी नए पशु की खरीदी करें  तो उनको खरीदी  के 21 दिनों  तक अकेला रखना चाहिए.

गायों और भैंसों को खुरपका रोग काफ़ी प्रभावित करता है. यह काफी तेज़ी से फैलने वाली एक संक्रामक बीमारी है, जिसके कारण गायों और भैंसों के दूध उत्पादन में काफी कमी हो जाती है जिससे पशुपालकों को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है।

इलाज– Treatment

  1. बीमार पशु के रोग से प्रभावित अंग  को जैसे उनके  मुख एवं  पैर को 1 प्रतिशत पोटैशियम परमैगनेट के घोल से धोना चाहिए.
  2. उनके मुख में बोरिक एसिड ग्लिसरीन का पेस्ट लगाना चाहिए.
  3. इसके साथ ही जानवरों को 6 महीने के अंतराल से एफएमडी के टीके लगवाने चाहिए.

ब्लैक क्वार्टर – Black Quarter 

यह पशुओं  में होने वाला एक तीव्र संक्रामक और अत्यधिक घातक, जीवाणु रोग है. भैंस, भेड़ और बकरी भी इस बीमारी से प्रभावित होते हैं. इस बीमारी से अत्याधिक प्रभावित 6-24 उम्र के युवा पशु होते है. यह बीमारी आमतौर पर बारिश के मौसम में  होती है.

लक्षण – symptoms in this disease

  1. बुखार
  2. भूख की कमी
  3. शारीरिक कमजोरी
  4. नाड़ी और हृदय गति का तेज हो जाना
  5. सांस लेने में परेशानी होना

नियंत्रित कैसे करें  – How to controlled

यदि रोग की प्रारंभिक अवस्था में इसको नियंत्रित किया जाये तो इसका उपचार प्रभावी होता है. उपचार और रोकथाम के लिए विभाग के नजदीकी पशुपालन अधिकारी या पशुपालन केंद्र में संपर्क करें.

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प्रिय पशुप्रेमी और पशुपालक बंधुओं पशुओं की उपर्युक्त बीमारी, बचाव एवं उपचार प्राथमिक और न्यूनतम है. संक्रामक बिमारियों के उपचार के लिये कृपया पेशेवर चिकित्सक अथवा नजदीकी पशुचिकित्सालय में जाकर, पशुचिकित्सक से सम्पर्क करें. ऐसे ही पशुपालन, पशुपोषण और प्रबन्धन की जानकारी के लिये आप अपने मोबाईल फोन पर गूगल सर्च बॉक्स में जाकर सीधे मेरे वेबसाइट एड्रेस pashudhankhabar.com का नाम टाइप करके पशुधन से जुड़ी जानकारी एकत्र कर सकते है.

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